Thursday, October 27, 2011

शराबी और मैं (कविता)

नरम नरम घासों में
और कोमल हाथों  में
एक उद्विज और एक अनुज कहलाता है .
जुऐ के ठेके पर, जज की कुर्शी पर
कहते है अंतर होता है मुझमें
शराबी और मैं .........................
पेशे का हकीम हूँ
पैसे का मुनीम हूँ
तेरी पराजय
मेरी जय  
मांगता भीख , पर नियत में नीक है
उठते कलम पर अक्ल से छिटं  है
कहते है अंतर होता मुझमें
शराबी और मैं .....................
रिश्ते की बुनियाद बनी है
दीवारें है पर जान की कमी है
यश और अपयश दोनों  खोजते 
दीखते लाली में, सूरज की अंधियारी में
माइन पर खरा  होना चाहता हूँ
प्रबंचक और शराबी में दूरियाँ देखता हूँ  
कहते हैं अंतर होता है मुझमें
शराबी और मैं ..............................
हमारे जमात पैसे की धाक होती है
जाति और स्वार्थ की ताक होती है
तू अच्छा है तुझमें में  महफिल के शाक   होती है
हिन्दू -मुस्लिम की नहीं अपनों की नाक होती है
सच है ईंसान हूँ ,पर खाइयाँ होती है
कहते है अंतर होता है मुझमें
शराबी और मैं ..............................
(मनोहर झा) 

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