Friday, March 15, 2013

dosto aaj mere janu ko uski sakhiyo ne sajaya hoga
bari khubsurt lag rahi hogi lal jore me ,
najakat se gori hatheli me mehdi lagae hogi ,
ro ro kar v mera hi nam rachae hogi.
subak rahi hogi jore me
par,pita ke nam aakho ko dekh muskurae hogi.
agni ke sat fero me khud ko jalae hogi.
achha hua dosto,
mere kusum ke leye me jinda hu
warna o mere kabr par v subak rahi hoti--------------
(usi ke leye)-------------................kusum..

Monday, December 31, 2012

       स्नेह (कविता )
पहली कलम उठी है
मन कहता है कुछ लिख लू 
पर, बार -बार ये फिसल परती है 
पीछे की ओर 
केसे कहु 
हा -हा तुम्हारी हंसी से ही 
खिला है मेरा आज 
उसी कलरब में निकला है 
मनोहर कोपल 
हा ये सच है 
कि ओ छाप नहीं मिट सकती 
उस पर हैं अगणित 
नेह,धुप,मेह ,गंध ,अश्रु 
पर प्रिये 
इस आलोक में 
झलक रहा है 
कुसुम संसार 
आज यही सचाई है 
भूखे ,नंगे ,अश्रुपूरित
आखों में है 
मेरा आज।
मुझे नबयोबना
की देह गंध नहीं 
आगाज है 
मरू की इस 
मिटटी  का जो 
बिखेरेगा 
एक स्नेह 
प्रबर।।।
                      नब बर्ष मंगल हो ----------

                <मनोहर कुमार झा >
              01/01/13
             (हुनके लेल )  


Friday, November 30, 2012


मैं कहाँ (कविता)
आशा और सुनहरे सपनों को
संजोये निकला था
कोर्थु से कोलकाता की ओर
बड़े अरमान
बड़ी आभाएँ
बिखरते चले गए
आंसू के टुकड़े
बांस के पास का घर
गाय का चारा
माँ की नमी आँखे
मैं भी नहीं चाहता था मुड़ना
क्योंकि ,
पुनः याद आती
भूखे बच्चे
तपते पैर
और एक सुर्ख सपना!
दुधिया रौशनी
चमकती सड़के
कामिनी के बोल
पर मडर होने पर नहीं खुलते दरवाजे
हिचकियों में कह जाती हज़ार सवाल
इसी लास में नजर आता हूँ
मैं भी
यौवना के होंठ का सोनित
बच्चे की कलेजी
मदिरा का 'बाथ टब'
एक हुक उठती है
कदम पीछे कर देखता हूँ
गिरने लगते हैं थूक के ओले
जरा और पीछे बढ़ता हूँ
माँ की आशक्त आँखे
पत्नी की स्वपनिल दुनिया
बच्चों का चन्द्र अभियान

पिता का दिवा स्वपन
लौट पड़ता हूँ कोलकाता
रोने को नहीं मिल रही है जमीन
दूध से सोनित तक का सफ़र
किसे कहूँ ? ----------
मैं कहाँ ?---------------''----------''
मनोहर कुमार झा
प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय
(कोलकाता) -73
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Saturday, November 3, 2012


      (गजल )

   मेहदी सुख गए उस रात  के तो क्या हुआ 
   लाली आज भी है।।
   बदलने लगे इसरो  की मायने तो क्या हुआ
   नजदीकियां  आज भी है।।
   सुख गए है ओ गजरे तो क्या हुआ 
  तेरे इबादत में कुसुम आज भी है।।
  वकत ने दुरी कर दी तो क्या हुआ 
 तेरे होठो का एहसास आज भी है।।
 कुछ इसारे कवी न बदलते, 
 मैं तो आज भी लता हु गजरे 
बाकि खुसबू आज भी है।।
                     <मनोहर  कुमार झा >


  प्यास (कबिता)

सुबह चाय से अधिक्  प्यारी लगती  है तेरे होठो की गर्म हवा 
भले सुसक रह जाये पूरा दिन 
पर शाम  को 
तुम्हारा मेरे आने से ठीक कुछेक छन पहले का दरवाज़ा खोलना 
आज भी पार्क में तेरे सरमाने से कुछ कम नहीं लगता 
साडी हरारत हो जाती है ख़तम 
और मै अबिरल निहारने लगता   हूँ 
तेरा मुख चंद .............

                          <मनोहर  कुमार झा >

Friday, November 2, 2012


      ओ हिस्सा (कबिता)

सोचता हूँ वक्त हर घाव भर देता है क्या 
पर नहीं ये तो मन का एक भाव है 
जो बहलाने का ओजार देता है 
प्रिये ,
तीज हो या पूर्णिमा की रात
तपती धुप या सावन का मेघ ......
जब भी तुम्हारी हिचकिया उठती है 
मेरी  साँसे मेरा साथ छोरने लगती है .
उठने लगती है हजार सवाल 
मेरे तेरे वादे 
क्या गली के नुकर पर मिल जाएँगे खजाने 
क्या देह और मेह के गंध एक से होते  ?
फुट फाथ पर खोजता हूँ 
रिश्ते का एहसास 
एक बच्चा  अपने गोद में एक छोटे को ले कर आ पंहुचा 
एक रोटी दे दो पलीज़
उठने लगते है  अनगिनत सवाल 
बाइपास के इस सरक पर  
झहर परते आसू की बुँदे 
 मैं
खोज रहा हूँ 
अपने धागे का ओ टुटा हिस्सा ------------- 
                                                          " मनोहर कुमार झा "
                                            

Thursday, December 29, 2011

आवास  (कबिता )
ना रहना  था साथ मेरे तो
काहे दिखाई  सपना
घोसले का
चली जाती चुप चाप
कहीं  बहुत दूर
थोरा सोचती
मेरे बारे में  भी
मेरे घोसले के
अंडे पर तरस  खाती
ना तोरती  उससे  भी
मुझसे नाता
जब ओ बहार  आता 
जी लेते अपने  घोसले
अपने उसी नबजात
के संग
बची रह जाती मेरी
लालसा
साथ होती तेरी  यादें
और तेरा हिस्सा
भले अधूरा होता
मेरा ओ घोसला
पर बच  जाता
हमारा सपना ,
और होती  एक सुकून
उसके साथ अपने
आवास  में  !!
:::'''      <कुसुम के लिये >
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-----मनोहर कुमार झा