Friday, November 2, 2012


      ओ हिस्सा (कबिता)

सोचता हूँ वक्त हर घाव भर देता है क्या 
पर नहीं ये तो मन का एक भाव है 
जो बहलाने का ओजार देता है 
प्रिये ,
तीज हो या पूर्णिमा की रात
तपती धुप या सावन का मेघ ......
जब भी तुम्हारी हिचकिया उठती है 
मेरी  साँसे मेरा साथ छोरने लगती है .
उठने लगती है हजार सवाल 
मेरे तेरे वादे 
क्या गली के नुकर पर मिल जाएँगे खजाने 
क्या देह और मेह के गंध एक से होते  ?
फुट फाथ पर खोजता हूँ 
रिश्ते का एहसास 
एक बच्चा  अपने गोद में एक छोटे को ले कर आ पंहुचा 
एक रोटी दे दो पलीज़
उठने लगते है  अनगिनत सवाल 
बाइपास के इस सरक पर  
झहर परते आसू की बुँदे 
 मैं
खोज रहा हूँ 
अपने धागे का ओ टुटा हिस्सा ------------- 
                                                          " मनोहर कुमार झा "
                                            

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