ओ हिस्सा (कबिता)
पर नहीं ये तो मन का एक भाव है
जो बहलाने का ओजार देता है
प्रिये ,
तीज हो या पूर्णिमा की रात
तपती धुप या सावन का मेघ ......
जब भी तुम्हारी हिचकिया उठती है
मेरी साँसे मेरा साथ छोरने लगती है .
उठने लगती है हजार सवाल
मेरे तेरे वादे
क्या गली के नुकर पर मिल जाएँगे खजाने
क्या देह और मेह के गंध एक से होते ?
फुट फाथ पर खोजता हूँ
रिश्ते का एहसास
एक बच्चा अपने गोद में एक छोटे को ले कर आ पंहुचा
एक रोटी दे दो पलीज़
उठने लगते है अनगिनत सवाल
बाइपास के इस सरक पर
झहर परते आसू की बुँदे
मैं
खोज रहा हूँ
अपने धागे का ओ टुटा हिस्सा -------------
" मनोहर कुमार झा "
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