प्यास (कबिता)
भले सुसक रह जाये पूरा दिन
पर शाम को
तुम्हारा मेरे आने से ठीक कुछेक छन पहले का दरवाज़ा खोलना
आज भी पार्क में तेरे सरमाने से कुछ कम नहीं लगता
साडी हरारत हो जाती है ख़तम
और मै अबिरल निहारने लगता हूँ
तेरा मुख चंद .............
<मनोहर कुमार झा >
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